Thirshu fair In Himachal Pradesh
|| Thirshu fair In Himachal Pradesh || Thirshu Mela In HP In hindi||
- यह मेला 7 बैसाख की संध्या को स्थानीय देवता रखाऊ नाग जी की रथ यात्रा से शुरू होता है।
- पारंपरिक वाद्य यंत्रों की मधुर धुनों के बीच नाग देवता की रथयात्रा गांव के साथ लगते देवस्थान ( देव थाणी) तक निकाली जाती है।
- हिमाचल के गांवों में अरोक रीति-रिवाजों एवं धार्मिक अगुष्यों का प्रचलन है। आज भी यहां के लोगों ने इन पौराणिक परंपराओं एवं रिवाजों को जीवित रखा है।
- हिमाचल की बहुमूल्य संस्कृति आज भी यहां के गांवों में मनाए जाने वाले मेलों एवं उत्सवों में साफ देखी जा सकती है।
- ऐसी ही परंपरा को जीवित रखा है जिला कुल्लू के आउटर सिराज के दूरदराज स्थित नित्थर फाटी के छोटे से गांव धनाह ने। यहां हर वर्ष 8 बैसाख के दिन 'ठिरशू' नामक पारंपरिक मेले का आयोजन किया जाता है।
- यह मेला 7 बैसाख की संध्या को स्थानीय देवता रखाऊ नाग जी की रथ यात्रा से शुरू होता है।
- पारंपरिक वाद्य यंत्रों की मधुर धुनों के बीच नाग देवता की रथयात्रा गांव के साथ लगते देवस्थान दिव थाणी) तक निकाली जाती है।
- वहां पहुंचकर नाग देवता अपने निश्चित स्थान पर बैठते हैं नाग देवता की पूजा अर्चना के साथ मां काली का आवाहन किया जाता है इसके पश्चात् ग्रामीणों द्वारा सुंदर पहाड़ी नाटी के साथ नाग देवता के रथ को वापस मंदिर परिसर में लाया जाता है।
- अगले दिन यानी 8 बैसाख को नाग देवता अपने रथ पर सवार होकर गांव के बीचोबीच स्थित प्रांगण में पूरे विधि विधान के साथ आते हैं।
- गांव की महिलाओं द्वारा अपने इष्ट देवता का स्वागत फूल मालाओं धूप एवं अनाज भेंट करके किया जाता है।
- रखाऊ नाग के आने की खुशी में गांव पारंपरिक लोकगीत ‘लाहणे एवं लामण' आदि की धुनों से गूंज उठता है।
- इसके पश्चात् इस ठिरशू मेले की सबसे आकर्षक परंपरा यानी 'स्वांग' का प्रदर्शन किया जाता है।
- महाभारत एवं मुगल काल की घटनाओं एवं सामाजिक जीवन से प्रेरित है स्वांग ग्रामीणों द्वारा विभिन्न प्रकार के स्वांग जैसे मेंटक नृत्य, मुगल मठ्ठाण, ढोल बरैटी, ब्रह्मचारी, साहूकार आदि के माध्यम से महाभारत तथा मुगल काल में घटित घटनाओं को जीवंत किया जाता है।
- 500 से भी अधिक वर्ष पूर्व से इस मेले में स्वांगो के माध्यम से लोगों का मनोरंजन किया जा रहा है।
- प्रत्येक स्वांग अपने आप में अतीत के रहस्यों एवं संदेश को समाए हुए लोगों का मनोरंजन तो करते ही हैं साथ ही सैकड़ों वर्ष पूर्व के मानव जीवन एवं सामाजिक परिवेश की झलक भी दिखाते हैं।
- स्वांगो द्वारा पहने गए परिधान एवं मुखौटे आकर्षण का मुख्य केंद्र रहते हैं।
- स्वांग के साथ-साथ तलवारबाजी भी है मेले का मुख्य आकर्षण
- मेले में स्वांगो के साथ-साथ तलवारबाजी की कला का भी प्रदर्शन किया जाता है।
- स्थानीय ग्रामीण श्री चांद कुमार शर्मा एवं श्री देशराज शर्मा का कहना है कि उन्हें यह तलवारबाजी की कला अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है।
- प्राचीन समय में गांव के लोगों द्वारा इस कौशल का प्रयोग बाहरी अक्रांताओं से गांव की रक्षा एवं देवता के खजाने की सुरक्षा के लिए किया जाता था।
- इसी परंपरा को स्थानीय ग्रामीणों ने आज भी जिंदा रखा है। धनाह गांव के लोग तलवारबाजी, कला में आज भी पारंगत है।
- सभी स्वांग कलाओं के प्रदर्शन के उपरांत मैदान के बीच में लगाए गए देवदार के पेड़ (जिसे स्थानीय भाषा में ‘पड़ेई' कहा जाता है) के चारों ओर वाद्य यंत्रों की धुनों के बीच एक खेल का आयोजन किया जाता है, जिसमें पेड़ की चोटी पर बंधे देव वस्त्र (स्थानीय भाषा में शाड़ी) को निकालने के लिए गांव के नौजवानों एवं अन्य लोगों में प्रतिस्पर्धा होती है।
- जो भी व्यक्ति वस्त्र को पेड़ पर चढ़कर निकालने में सफल रहता है उसे नाटी में सबसे आगे नाचने का मौका मिलता है।
- मनमोहक कुल्लुवी नाटी एवं मधुर धुनों के बीच नाग देवता के रथ को उनकी कोठी में वापिस पहुंचाया जाता है। इसके पश्चात् सभी ग्रामीण सुबह तक अपने इष्ट देवता रखाऊ नाग एवं मां दुर्गा धनेश्वरी की लोकगीत एवं पारंपरिक भजनों से स्तुति करते हैं।
- रात्रि स्वांग एवं नाटी के प्रदर्शन के बीच सुबह की पहली किरण निकलते ही इस ऐतिहासिक एवं पौराणिक मेले का विधि-विधान के साथ समापन होता है।
- इस प्रकार यह मेला निश्चित रूप से हिमाचल की बहुमूल्य संस्कृति का परिचायक है, जिसे धनाह वासियों ने आज भी संजोकर रखा है।
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